आर्टिकल-MC Ahirwar
07.07.2025
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पदोन्नति नियम‑2025 पर हाईकोर्ट की रोक: सामाजिक न्याय बनाम विधिक न्याय का द्वंद्व
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मध्य प्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण के नए नियमों को लेकर एक बार फिर न्यायिक हस्तक्षेप की स्थिति उत्पन्न हो गई है। लोक सेवा पदोन्नति नियम‑2025 को लेकर जबलपुर उच्च न्यायालय द्वारा स्थगन आदेश (Stay) जारी किया जाना न केवल राज्य सरकार की नीति निर्माण प्रक्रिया पर सवाल खड़े करता है, बल्कि यह इस बात का भी प्रमाण है कि आरक्षण के संवेदनशील मुद्दे पर प्रशासनिक जल्दबाज़ी और कानूनी परिपक्वता के बीच सामंजस्य का अभाव है।
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सामाजिक न्याय की परिकल्पना और कानूनी पेचीदगियां
भारत में आरक्षण को सामाजिक न्याय का एक प्रमुख साधन माना गया है। संविधान में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है ताकि सदियों से वंचित रहे वर्गों को समान अवसर मिल सके। पदोन्नति में आरक्षण इसी श्रृंखला का हिस्सा है। किंतु सुप्रीम कोर्ट द्वारा बार-बार यह स्पष्ट किया गया है कि पदोन्नति में आरक्षण अधिकार नहीं, बल्कि परिस्थितियों के मूल्यांकन पर आधारित सुविधा है, जिसके लिए “Quantifiable data”, “Inadequacy of representation” और “Administrative efficiency” जैसे मापदंडों की पूर्ति आवश्यक है।
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2025 नियम और उस पर आपत्ति
राज्य शासन द्वारा जनवरी 2025 में जारी लोक सेवा पदोन्नति नियम‑2025 में ऐसे ही आरक्षण प्रावधानों को एक बार फिर शामिल किया गया जो पहले 2002 के नियमों का हिस्सा थे। सपाक्स संगठन, जो कि सामान्य, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग के अधिकारियों का प्रतिनिधित्व करता है, ने इसे न्यायालय में चुनौती दी। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि:
• सुप्रीम कोर्ट में अभी तक 2002 नियमों को लेकर मुकदमा लंबित है, और जब तक उसका अंतिम निर्णय नहीं आ जाता, तब तक नए नियम बनाकर उसे लागू करना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन है।
• नए नियम पुराने नियमों की तरह ही आरक्षण के अनुपात और उसकी प्रणाली को यथावत बनाए हुए हैं, जिससे उन कर्मचारियों की पदोन्नति की संभावना प्रभावित होती है, जो आरक्षित कोटि में नहीं आते।
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उच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया
जबलपुर उच्च न्यायालय ने याचिका को सुनवाई योग्य मानते हुए यह आदेश दिया कि:
• जब तक अगली सुनवाई नहीं हो जाती, राज्य में पदोन्नति में आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाएगा।
• इस दौरान कोई डीपीसी (Departmental Promotion Committee) की बैठक नहीं की जा सकती।
• राज्य सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा गया है कि 2002 से अब तक किन नियमों के आधार पर पदोन्नतियां दी गईं, और 2025 नियमों में वस्तुतः नया क्या है?
इस आदेश से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि न्यायालय इस मुद्दे को केवल सामाजिक न्याय की दृष्टि से नहीं, बल्कि संवैधानिक प्रक्रिया और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्देशों की अनुपालना के आधार पर देख रहा है।
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राजनीतिक और प्रशासनिक प्रभाव
इस निर्णय से एक ओर जहां करीब 4 लाख से अधिक कर्मचारियों की पदोन्नति प्रक्रिया प्रभावित हुई है, वहीं शासन की मंशा और तत्परता पर भी सवाल खड़े हो गए हैं। यदि राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की जानकारी थी, तो फिर नए नियम लागू करने की जल्दी क्यों दिखाई गई? यह प्रश्न शासन की नीति निर्धारण प्रक्रिया की पारदर्शिता और वैधानिक समझ पर एक प्रश्नचिह्न है।
इसका असर प्रशासनिक कार्यों पर भी पड़ेगा, क्योंकि जिन विभागों में पदोन्नति से रिक्त पद भरने की तैयारी थी, वे अब न्यायालयी प्रक्रिया पूरी होने तक ठप हो जाएंगी। इससे न केवल कार्यकुशलता प्रभावित होगी, बल्कि कर्मचारियों के मनोबल पर भी असर पड़ेगा।
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समाज में प्रतिक्रिया
आरक्षण समर्थक संगठनों का कहना है कि यह आदेश सामाजिक न्याय के खिलाफ है और इससे आरक्षित वर्गों की वर्षों की प्रतीक्षा एक बार फिर लटक गई है। वहीं, सपाक्स और समानता के पक्षधर समूहों का तर्क है कि आरक्षण एक संवेदनशील मुद्दा है, और किसी भी नीतिगत बदलाव से पहले सुप्रीम कोर्ट की स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए, जिससे सभी वर्गों के साथ न्याय हो सके।
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पदोन्नति नियम‑2025 पर उच्च न्यायालय का स्थगन आदेश यह सिद्ध करता है कि संवैधानिक संतुलन और विधिक औचित्य को दरकिनार कर त्वरित निर्णय लेना राज्य के हित में नहीं होता। शासन को चाहिए कि वह न केवल सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों की अनुपालना करे, बल्कि नीति निर्धारण में पारदर्शिता और सर्वसम्मति की भावना को भी सम्मिलित करे।
सामाजिक न्याय तभी सार्थक है जब वह विधिक न्याय के साथ संतुलन में हो।
इस पूरे घटनाक्रम से यह स्पष्ट होता है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में आरक्षण केवल एक नीति नहीं, बल्कि एक संवेदनशील लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, जिसमें न्यायपालिका, कार्यपालिका और समाज – सभी की जिम्मेदारी समान रूप से महत्वपूर्ण है।
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